मंगलवार, 1 मई 2012

शिक्षा का अधिकार कानून अब पूरी तरह संवैधानिक

शिक्षा का अधिकार कानून अब पूरी तरह संवैधानिक हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को पूरी तरह वैध माना है। मुख्य न्यायाधीश एस.एच.कपाड़िया, जस्टिस के.एस.राधाकृष्णन और जस्टिस स्वतंत्र कुमार की बेंच ने 12 फरवरी को अपने एतिहासिक फैसले में कहा कि यह कानून सरकार से वित्तीय सहायता ले रहे अल्पसंख्यक विद्यालयों पर लागू नहीं होगा। अब शिक्षा के अधिकार कानून के तहत सभी सरकारी, वित्तीय सहायता प्राप्त व गैर वित्तीय सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में गरीब विद्यार्थियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रहेगा। यूं तो यह कानून 2009 में ही पारित हो गया था, लेकिन तब निजी स्कूलों ने इसके खिलाफ याचिका दायर करके कहा था कि यह धारा 19 (1) के तहत कानून निजी शिक्षण संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन करता है। उनका तर्क था कि संविधान की धारा 19 (1) निजी संस्थानों को बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के अपना प्रबंधन करने की स्वायत्तता देता है। यह हकीकत हे कि जब से देश में शिक्षा का निजीकरण प्रारंभ हुआ,तब से शिक्षा को एक वर्ग विशेष तक सीमित रखने के षडयंत्र भी प्रारंभ हो गए। दरअसल शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की सोच उस पश्चिमी, विशेषकर अमरीकी मानसिकता से प्रभावित है, जो अपनी जरूरत के मुताबिक आम जनता को शिक्षा उपलब्ध कराती है। इसी सोच का नतीजा है कि आज अमरीका में विद्यालयों में बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। स्नातक या उससे आगे की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत बहुत कम है। कुछ दशकों पूर्व तक अश्वेत बच्चों को शिक्षा आसानी से उपलब्ध नहीं थी। यही स्थिति आज भारत की दिख रही है। संविधान में घोषित प्रावधानों के बावजूद दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, अति गरीबों के लिए शिक्षित होना आकाशकुसुम तोड़ने की तरह है। इस वर्ग को शिक्षा से वंचित रखने का मुख्य कारण यही है कि वह चुपचाप दमित होता रहे, शोषण सहता रहे और शारीरिक श्रम के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प न रह जाए। दुर्भाग्य यह है कि भारत में शिक्षा का व्यापार करने वाले अमरीकी सोच से ही प्रभावित दिखते हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में ऐसे स्कूल बहुतायत में खुले हैं जिनमें तथाकथित भारतीय संस्कृति में विद्यार्थियों को दक्ष करने की बात कही गयी है, लेकिन यह व्यापारिक चतुराई से ज्यादा कुछ नहींहै। आर्थिक संपन्नता को आधार बनाकर सांस्कृतिक विषमता बढ़ाने की यह सोच दरअसल पूरे समाज को ही बांट कर रख रही है। निश्चित रूप से निजी स्कूलों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराशा हुई होगी, क्योंकि अब उनके आलीशान भवनों में गरीब का बच्चा भी पढ़ने जा सकेगा।
सुप्रीम कोर्ट से मिली छुट के बाद अल्पसंख्यक विद्यालयों के संचालकों की बल्ले बल्ले हो गई संस्थानों की मण्डली के नेता कोसमोस शेखावत जिला शिक्षा अधिकारी को अल्पसंख्यक विद्यालयों की एक सूचि सोंप कर आ गये की इन 12 स्कूलों पर शिक्षा के अधिकार कानून का प्रभाव नही हे, बेचारे जिला शिक्षा अधिकारी उन्हें इस बारे में कुछ मालूम ही नही सो सूचि चुपचाप लेकर बेठ गये यह सवाल तक नहीं किया की आपके विद्यालय की स्थापना किस अल्पसंख्यक प्रवर्ग के कल्याण के लिए की गई है ? क्या आपके विद्यालय द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शेक्षणिक संस्थान आयोग भारत सरकार नई दिल्ली सेअल्पसंख्यक संस्थान होने सम्बधी मान्यता विधिवत रूप से प्राप्त की गई है ? क्या आपके विद्यालय का पंजिकरण, लोक न्यास अधिनियम 1950 अथवा सोसायटी पंजिकरण अधिनियम 1860 अथवा राजस्थान सोसायटी अधिनियम 1958 अथवा राजस्थान सहकार अधिनियम 1965 के अन्र्तगत करवाया गया है?
दरअसल अल्पसंख्यक संस्थान होने सम्बधी मान्यता प्रप्त स्कूलों के लिए सरकार के नियमों में स्पष्ट प्रावधान है कि राजस्थान सरकार के संकल्प संख्या ए.एस.एस-2008 दिनांक 24 जनवरी 2011 के बिन्दू संख्या 5 (5) (ए) व (बी) के अनुसार अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान हेतु कुल स्वीकृत छात्र संख्या का 51 प्रतिशत उस अल्पसंख्यक प्रवर्ग का होना आवश्यक है जिस अल्पसंख्यक प्रवर्ग के कल्याण हेतु उस विद्याालय की स्थापना की गई। अल्पसंख्यक विद्यार्थियों की अनुपलब्धता की स्थिती में अल्पसंख्यक विद्यालय द्वारा गैर अल्पसंख्यक छात्रों को प्रवेश देने हेतु राजस्थान सरकार द्वारा जारी संकल्प दिनांक 24 जनवरी 2011 के बिन्दू संख्या (5) (6) (बी) की पालना में अल्पसंख्यक विकास विभाग से विधिवत स्वीकृति लेना अनिवार्य रखा गया है। अब सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो तस्वीर साफ नजर आएगी कि राजस्थान में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शेक्षणिक संस्थान आयोग भारत सरकार से अल्पसंख्यक संस्थान होने सम्बधी मान्यता विधिवत रूप 82 स्कूलों ने प्राप्त की हुई है। अब हर मिशिनरी स्कूल यह दावा करके शिक्षा के अधिकार कानून की पालना से बचने की फिराक में है कि वह अल्पसंखयक स्टेट्स का स्कूल है
केंद्र सरकार की दलील यही है कि यह कानून सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की उन्नति में सहायक है। इसके तहत देश के हर 6 से 14 साल की उम्र के बच्चे को मुफ्त शिक्षा हासिल होगी यानी हर बच्चा पहली से आठवीं कक्षा तक मुफ्त और अनिवार्य रूप से पढ़ेगा। सभी बच्चों को घर के आस.पास स्कूल में दाखिला हासिल करने का हक होगा। सभी तरह के स्कूल चाहे वे सरकारी हों, अर्ध्दसरकारी हों, सरकारी सहायता प्राप्त हों, गैर सरकारी हों, केंद्रीय विद्यालय हों, नवोदय विद्यालय हों, सैनिक स्कूल हों, इस कानून के दायरे में आएंगे। गैर सरकारी स्कूलों को भी 25 फीसदी सीटें गरीब वर्ग के बच्चों को मुफ्त मुहैया करानी होंगी। जो ऐसा नहीं करेगा उसकी मान्यता रद्द कर दी जाएगी। सभी स्कूल शिक्षित-प्रशिक्षित अध्यापकों को ही भर्ती करेंगे और अध्यापक-छात्र अनुपात 1:40 रहेगा। सभी स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं होनी अनिवार्य हैं। इसमें क्लास रूम, टॉइलेट, खेल का मैदान, पीने का पानी, लंच, लाइब्रेरी आदि शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात कानून में ये हे की कोई स्कूल न तो प्रवेश के लिए कैपिटेशन फीस ले सकते हैं और न ही किसी तरह का डोनेशन। अगर इस तरह का कोई मामला प्रकाश में आया तो स्कूल पर 25हजार से 50हजार रुपये तक का जुर्माना वसूला जाएगा। निजी टयूशन पर पूरी तरह से रोक होगी और किसी बच्चे को शारीरिक सजा नहीं दी जा सकेगी। कुल मिलाकर इस कानून के प्रावधानों को पढ़ने से यही लगता है कि देश में शीघ्र ही इससे आमूलचूल सामाजिक बदलाव होगा। वर्तमान सरकार चाहे तो इसका शब्दश: पालन करवा कर इतिहास की धारा मोड़ कर रख दे। लेकिन पूर्व के अनुभव यही कहते हैं कि लक्ष्य अभी दूर है। कमजोर लोगों की उन्नति की सरकार की दलील सही है, लेकिन दवा का इंतजाम करने की अपेक्षा वह रोग को पनपने लायक माहौल ही खत्म कर दे, तो क्या बेहतर नहीं होगा। निजी स्कूल सरकार के निर्देशों के मुताबिक संचालित होंगे, इसकी संभावनाएं कम हैं, वे कोई न कोई पिछला दरवाजा ढूंढ ही लेंगे। चिंता इस बात की भी होनी चाहिए कि 75 प्रतिशत धनाढय बच्चों के बीच 25 प्रतिशत गरीब बच्चे किस प्रकार की मानसिक स्थिति से गुजरेंगे। अच्छा होता अगर सरकार निजी स्कूलों के बरक्स सरकारी स्कूलों का स्तर ही इतना ऊंचा कर लेती कि शिक्षा का व्यापार चलाने वालों को मुंह की खानी पड़ती। तब बच्चों के बीच न आर्थिक विषमता की खाई होती, न सामाजिक स्थिति का भेद, केवल शिक्षा के जरिए बेहतर भविष्य बनाने के सपने होते। सवाल यह है कि क्या सरकार के भी ऐसे सपने हैं?
Muzaffar Bharti
Cell:no 8764355800
muzaffarbharti@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें